चाणक्य के विचार और नीति
आचार्य चाणक्य कौटिल्य और विष्णुगुप्त नामों से विख्यात हैं। चाणक्य चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहते थे। चाणक्य के अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र की रचना की थी, जिसे हमलोग चाणक्य नीति के नाम से जानते हैं|
चाणक्य नीति मे कही गई सारी बातें आज भी एकदम सटीक बैठती है। आज हम आपको उन्ही चाणक्य नीति के अनमोल विचारों को प्रस्तुत कर रहें हैं।
चाणक्य के अनमोल विचार-
1. कामयाब होने के लिए अच्छे मित्रो की जरूरत होती है और ज्यादा कामियाब होने के लिए अच्छे शत्रुओ की आवश्यकता होती है|
2. वन की अग्नि चन्दन की लकड़ी को भी जला देती है अर्थात दुष्ट व्यक्ति किसी का भी अहित कर सकते है।
3. शत्रु की दुर्बलता जानने तक उसे अपना मित्र बनाए रखें।
4. सिंह भूखा होने पर भी तिनका नहीं खाता।
5. एक ही देश के दो शत्रु परस्पर मित्र होते है।
6. आपातकाल में स्नेह करने वाला ही मित्र होता है।
7. मित्रों के संग्रह से बल प्राप्त होता है।
8. जो धैर्यवान नहीं है, उसका न वर्तमान है न भविष्य।
9. संकट में बुद्धि ही काम आती है।
10. लोहे को लोहे से ही काटना चाहिए।
11. यदि माता दुष्ट है तो उसे भी त्याग देना चाहिए।
12: यदि स्वयं के हाथ में विष फ़ैल रहा है तो उसे काट देना चाहिए।
13. सांप को दूध पिलाने से विष ही बढ़ता है, न की अमृत।
14. एक बिगड़ैल गाय सौ कुत्तों से ज्यादा श्रेष्ठ है। अर्थात एक विपरीत स्वाभाव का परम हितैषी व्यक्ति, उन सौ लोगों से श्रेष्ठ है जो आपकी चापलूसी करते है।
15. कल के मोर से आज का कबूतर भला। अर्थात संतोष सब बड़ा धन है।
16. आग सिर में स्थापित करने पर भी जलाती है। अर्थात दुष्ट व्यक्ति का कितना भी सम्मान कर लें,वह सदा दुःख ही देता है।
17. अन्न के सिवाय कोई दूसरा धन नहीं है।
18. भूख के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं है।
19. विद्या ही निर्धन का धन है।
20. विद्या को चोर भी नहीं चुरा सकता।
21. शत्रु के गुण को भी ग्रहण करना चाहिए।
22. अपने स्थान पर बने रहने से ही मनुष्य पूजा जाता है।
23. सभी प्रकार के भय से बदनामी का भय सबसे बड़ा होता है।
24. किसी लक्ष्य की सिद्धि में कभी शत्रु का साथ न करें।
25. आलसी का न वर्तमान होता है, न भविष्य।
26. सोने के साथ मिलकर चांदी भी सोने जैसी दिखाई पड़ती है अर्थात सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है।
27. ढेकुली नीचे सिर झुकाकर ही कुँए से जल निकालती है। अर्थात कपटी या पापी व्यक्ति सदैव मधुर वचन बोलकर अपना काम निकालते है
28. सत्य भी यदि अनुचित है तो उसे नहीं कहना चाहिए।
29. समय का ध्यान नहीं रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में निर्विघ्न नहीं रहता।
30. जो जिस कार्ये में कुशल हो उसे उसी कार्ये में लगना चाहिए।
31. दोषहीन कार्यों का होना दुर्लभ होता है।
32. किसी भी कार्य में पल भर का भी विलम्ब न करें।
33. चंचल चित वाले के कार्य कभी समाप्त नहीं होते।
34. पहले निश्चय करिएँ, फिर कार्य आरम्भ करें।
35. भाग्य पुरुषार्थी के पीछे चलता है।
36. अर्थ, धर्म और कर्म का आधार है।
37. शत्रु दण्डनीति के ही योग्य है।
38. कठोर वाणी अग्निदाह से भी अधिक तीव्र दुःख पहुंचाती है।
39. व्यसनी व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।
40. शक्तिशाली शत्रु को कमजोर समझकर ही उस पर आक्रमण करे।
41. अपने से अधिक शक्तिशाली और समान बल वाले से शत्रुता न करे।
42. मंत्रणा को गुप्त रखने से ही कार्य सिद्ध होता है।
43. योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
44. एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
45. अविनीत स्वामी के होने से तो स्वामी का न होना अच्छा है।
46. जिसकी आत्मा संयमित होती है, वही आत्मविजयी होता है।
47. स्वभाव का अतिक्रमण अत्यंत कठिन है।
48. धूर्त व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की सेवा करते हैं।
49. कल की हज़ार कौड़ियों से आज की एक कौड़ी भली। अर्थात संतोष सबसे बड़ा धन है।
50. दुष्ट स्त्री बुद्धिमान व्यक्ति के शरीर को भी निर्बल बना देती है।
51. आग में आग नहीं डालनी चाहिए। अर्थात क्रोधी व्यक्ति को अधिक क्रोध नहीं दिलाना चाहिए।
52. मनुष्य की वाणी ही विष और अमृत की खान है।
53. दुष्ट की मित्रता से शत्रु की मित्रता अच्छी होती है।
54. दूध के लिए हथिनी पालने की जरुरत नहीं होती। अर्थात आवश्कयता के अनुसार साधन जुटाने चाहिए।
55. कठिन समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए।
56. कल का कार्य आज ही कर ले।
57. सुख का आधार धर्म है
58. धर्म का आधार अर्थ अर्थात धन है।
59. अर्थ का आधार राज्य है।
60. राज्य का आधार अपनी इन्द्रियों पर विजय पाना है।
61. प्रकृति (सहज) रूप से प्रजा के संपन्न होने से नेताविहीन राज्य भी संचालित होता रहता है।
62. वृद्धजन की सेवा ही विनय का आधार है।
63. वृद्ध सेवा अर्थात ज्ञानियों की सेवा से ही ज्ञान प्राप्त होता है।
64. ज्ञान से राजा अपनी आत्मा का परिष्कार करता है, सम्पादन करता है।
65. आत्मविजयी सभी प्रकार की संपत्ति एकत्र करने में समर्थ होता है।
66. जहां लक्ष्मी (धन) का निवास होता है, वहां सहज ही सुख-सम्पदा आ जुड़ती है।
67. इन्द्रियों पर विजय का आधार विनर्मता है।
68. प्रकर्ति का कोप सभी कोपों से बड़ा होता है।
69. शासक को स्वयं योगय बनकर योगय प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
70. योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।
71. एक अकेला पहिया नहीं चला करता।
72. सुख और दुःख में सामान रूप से सहायक होना चाहिए।
73. स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों कोसम्मुख रखकर दुबारा उन पर विचार करे।
74. अविनीत व्यक्ति को स्नेही होने पर भी मंत्रणा में नहीं रखना चाहिए।
75. शासक को स्वयं योग्य बनकर योग्य प्रशासकों की सहायता से शासन करना चाहिए।
76. सुख और दुःख में समान रूप से सहायक होना चाहिए।
77. स्वाभिमानी व्यक्ति प्रतिकूल विचारों को सम्मुख रखकर दोबारा उन पर विचार करे।
78. अविनीत व्यक्ति को स्नेही होने पर भी अपनी मंत्रणा में नहीं रखना चाहिए।
79. ज्ञानी और छल-कपट से रहित शुद्ध मन वाले व्यक्ति को ही मंत्री बनाए।
80. समस्त कार्य पूर्व मंत्रणा से करने चाहिए।
81. विचार अथवा मंत्रणा को गुप्त न रखने पर कार्य नष्ट हो जाता है।
82. लापरवाही अथवा आलस्य से भेद खुल जाता है।
83. सभी मार्गों से मंत्रणा की रक्षा करनी चाहिए।
84. मन्त्रणा की सम्पति से ही राज्य का विकास होता है।
85. मंत्रणा की गोपनीयता को सर्वोत्तम माना गया है।
86. भविष्य के अन्धकार में छिपे कार्य के लिए श्रेष्ठ मंत्रणा दीपक के समान प्रकाश देने वाली है।
87: मंत्रणा के समय कर्त्तव्य पालन में कभी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
88: मंत्रणा रूप आँखों से शत्रु के छिद्रों अर्थात उसकी कमजोरियों को देखा-परखा जाता है।
89: राजा, गुप्तचर और मंत्री तीनो का एक मत होना किसी भी मंत्रणा की सफलता है।
90: कार्य-अकार्य के तत्वदर्शी ही मंत्री होने चाहिए।
91: छः कानो में पड़ने से (तीसरे व्यक्ति को पता पड़ने से) मंत्रणा का भेद खुल जाता है।
92: अप्राप्त लाभ आदि राज्यतंत्र के चार आधार है।
93: आलसी राजा अप्राप्त लाभ को प्राप्त नहीं करता।
94: आलसी राजा प्राप्त वास्तु की रक्षा करने में असमर्थ होता है।
95: आलसी राजा अपने विवेक की रक्षा नहीं कर सकता।
96: आलसी राजा की प्रशंसा उसके सेवक भी नहीं करते।
97: शक्तिशाली राजा लाभ को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।98: राज्यतंत्र को ही नीतिशास्त्र कहते है।
99: राज्यतंत्र से संबंधित घरेलु और बाह्य, दोनों कर्तव्यों को राजतंत्र का अंग कहा जाता है।
100: राज्य नीति का संबंध केवल अपने राज्य को सम्रद्धि प्रदान करने वाले मामलो से होता है।
1 01: निर्बल राजा को तत्काल संधि करनी चाहिए।
102: पडोसी राज्यों से सन्धियां तथा पारस्परिक व्यवहार का आदान-प्रदान और संबंध विच्छेद आदि का निर्वाह मंत्रिमंडल करता है।
103: राज्य को नीतिशास्त्र के अनुसार चलना चाहिए।
104: निकट के राज्य स्वभाव से शत्रु हो जाते है।
105: किसी विशेष प्रयोजन के लिए ही शत्रु मित्र बनता है।
106: आवाप अर्थात दूसरे राष्ट्र से संबंध नीति का परिपालन मंत्रिमंडल का कार्य है।
107: दुर्बल के साथ संधि न करे।
108: ठंडा लोहा लोहे से नहीं जुड़ता।
109: संधि करने वालो में तेज़ ही संधि का हेतु होता है।
110: शत्रु के प्रयत्नों की समीक्षा करते रहना चाहिए।
111: बलवान से युद्ध करना हाथियों से पैदल सेना को लड़ाने के समान है।
112: कच्चा पात्र कच्चे पात्र से टकराकर टूट जाता है।
113: संधि और एकता होने पर भी सतर्क रहे।
114: शत्रुओं से अपने राज्य की पूर्ण रक्षा करें।
115: शक्तिहीन को बलवान का आश्रय लेना चाहिए।
116: दुर्बल के आश्रय से दुःख ही होता है।
117: अग्नि के समान तेजस्वी जानकर ही किसी का सहारा लेना चाहिए।
118: राजा के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए।
119: व्यक्ति को उट-पटांग अथवा गवार वेशभूषा धारण नहीं करनी चाहिए।
120: देवता के चरित्र का अनुकरण नहीं करना चाहिए।
121: ईर्ष्या करने वाले दो समान व्यक्तियों में विरोध पैदा कर देना चाहिए।
122: चतुरंगणी सेना (हाथी, घोड़े, रथ और पैदल) होने पर भी इन्द्रियों के वश में रहने वाला राजा नष्ट हो जाता है।
123: जुए में लिप्त रहने वाले के कार्य पूरे नहीं होते है।
124: शिकारपरस्त राजा धर्म और अर्थ दोनों को नष्ट कर लेता है।
125: शराबी व्यक्ति का कोई कार्य पूरा नहीं होता है।
126: कामी पुरुष कोई कार्य नहीं कर सकता।
127: पूर्वाग्रह से ग्रसित दंड देना लोकनिंदा का कारण बनता है।
128: धन का लालची श्रीविहीन हो जाता है।
129: दण्डनीति के उचित प्रयोग से ही प्रजा की रक्षा संभव है।
130: दंड से सम्पदा का आयोजन होता है।
131: दण्डनीति के प्रभावी न होने से मंत्रीगण भी बेलगाम होकर अप्रभावी हो जाते है।
132: दंड का भय न होने से लोग अकार्य करने लगते है।
133: दण्डनीति से आत्मरक्षा की जा सकती है।
134: आत्मरक्षा से सबकी रक्षा होती है।
135: आत्मसम्मान के हनन से विकास का विनाश हो जाता है।
136: निर्बल राजा की आज्ञा की भी अवहेलना कदापि नहीं करनी चाहिए।
137: अग्नि में दुर्बलता नहीं होती।
138: दंड का निर्धारण विवेकसम्मत होना चाहिए।
139: दंडनीति से राजा की प्रवति अर्थात स्वभाव का पता चलता है।
140: स्वभाव का मूल अर्थ लाभ होता है।
141: अर्थ कार्य का आधार है।
142: धन होने पर अल्प प्रयत्न करने से कार्य पूर्ण हो जाते है।
143: उपाय से सभी कार्य पूर्ण हो जाते है। कोई कार्य कठिन नहीं रहता।
Quote 144: बिना उपाय के किए गए कार्य प्रयत्न करने पर भी बचाए नहीं जा सकते, नष्ट हो जाते है।
145: कार्य करने वाले के लिए उपाय सहायक होता है।
146: कार्य का स्वरुप निर्धारित हो जाने के बाद वह कार्य लक्ष्य बन जाता है।
147: अस्थिर मन वाले की सोच स्थिर नहीं रहती।
148: कार्य के मध्य में अति विलम्ब और आलस्य उचित नहीं है।
149: कार्य-सिद्धि के लिए हस्त-कौशल का उपयोग करना चाहिए।
150: भाग्य के विपरीत होने पर अच्छा कर्म भी दुखदायी हो जाता है।
151: अशुभ कार्यों को नहीं करना चाहिए।
152: समय को समझने वाला कार्य सिद्ध करता है।
153: समय का ज्ञान न रखने वाले राजा का कर्म समय के द्वारा ही नष्ट हो जाता है।
154: देश और फल का विचार करके कार्ये आरम्भ करें।
155: नीतिवान पुरुष कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व ही देश-काल की परीक्षा कर लेते है।
156: परीक्षा करने से लक्ष्मी स्थिर रहती है।
157: सभी प्रकार की सम्पति का सभी उपायों से संग्रह करना चाहिए।
158: बिना विचार कार्ये करने वालो को भाग्यलक्ष्मी त्याग देती है।
159: ज्ञान अर्थात अपने अनुभव और अनुमान के द्वारा कार्य की परीक्षा करें।
160: उपायों को जानने वाला कठिन कार्यों को भी सहज बना लेता है।
161: सिद्ध हुए कार्ये का प्रकाशन करना ही उचित कर्तव्य होना चाहिए।
162: संयोग से तो एक कीड़ा भी स्तिथि में परिवर्तन कर देता है।
163: अज्ञानी व्यक्ति के कार्य को बहुत अधिक महत्तव नहीं देना चाहिए।
164: ज्ञानियों के कार्य भी भाग्य तथा मनुष्यों के दोष से दूषित हो जाते है।
165: भाग्य का शमन शांति से करना चाहिए।
166: मनुष्य के कार्ये में आई विपति को कुशलता से ठीक करना चाहिए।
167: मुर्ख लोग कार्यों के मध्य कठिनाई उत्पन्न होने पर दोष ही निकाला करते है।
168: कार्य की सिद्धि के लिए उदारता नहीं बरतनी चाहिए।
169: दूध पीने के लिए गाय का बछड़ा अपनी माँ के थनों पर प्रहार करता है।
170: जिन्हें भाग्य पर विश्वास नहीं होता, उनके कार्य पुरे नहीं होते।
180: प्रयत्न न करने से कार्य में विघ्न पड़ता है।
181: जो अपने कर्तव्यों से बचते है, वे अपने आश्रितों परिजनों का भरण-पोषण नहीं कर पाते।
182: जो अपने कर्म को नहीं पहचानता, वह अँधा है।
183: प्रत्यक्ष और परोक्ष साधनों के अनुमान से कार्य की परीक्षा करें।
184: निम्न अनुष्ठानों (भूमि, धन-व्यापार उधोग-धंधों) से आय के साधन भी बढ़ते है।
185: विचार न करके कार्ये करने वाले व्यक्ति को लक्ष्मी त्याग देती है।
186: परीक्षा किये बिना कार्य करने से कार्य विपत्ति में पड़ जाता है।
187: परीक्षा करके विपत्ति को दूर करना चाहिए।
188: अपनी शक्ति को जानकार ही कार्य करें।
189: स्वजनों को तृप्त करके शेष भोजन से जो अपनी भूख शांत करता है, वाह अमृत भोजी कहलाता है।
190: कायर व्यक्ति को कार्य की चिंता नहीं होती।
191: अपने स्वामी के स्वभाव को जानकार ही आश्रित कर्मचारी कार्य करते है।
192: गाय के स्वभाव को जानने वाला ही दूध का उपभोग करता है।
193: नीच व्यक्ति के सम्मुख रहस्य और अपने दिल की बात नहीं करनी चाहिए।
194: कोमल स्वभाव वाला व्यक्ति अपने आश्रितों से भी अपमानित होता है।
195: कठोर दंड से सभी लोग घृणा करते है।
196: राजा योग्य अर्थात उचित दंड देने वाला हो।
197: अगम्भीर विद्वान को संसार में सम्मान नहीं मिलता।
198: महाजन द्वारा अधिक धन संग्रह प्रजा को दुःख पहुँचाता है।
199: अत्यधिक भार उठाने वाला व्यक्ति जल्दी थक जाता है।
200: सभा के मध्य जो दूसरों के व्यक्तिगत दोष दिखाता है, वह स्वयं अपने दोष दिखाता है।
201: मुर्ख लोगों का क्रोध उन्हीं का नाश करता है।
202: सच्चे लोगो के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं।
203: केवल साहस से कार्य-सिद्धि संभव नहीं।
204: व्यसनी व्यक्ति लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही रुक जाता है।
205: असंशय की स्तिथि में विनाश से अच्छा तो संशय की स्तिथि में हुआ विनाश होता है।
206: दूसरे के धन पर भेदभाव रखना स्वार्थ है।
207: न्याय विपरीत पाया धन, धन नहीं है।
208: दान ही धर्म है।
209: अज्ञानी लोगों द्वारा प्रचारित बातों पर चलने से जीवन व्यर्थ हो जाता है।
210: न्याय ही धन है।
211: जो धर्म और अर्थ की वृद्धि नहीं करता वह कामी है।
212: धर्मार्थ विरोधी कार्य करने वाला अशांति उत्पन्न करता है।
213: सीधे और सरल व्तक्ति दुर्लभता से मिलते है।
214: निकृष्ट उपायों से प्राप्त धन की अवहेलना करने वाला व्यक्ति ही साधू होता है।
215: बहुत से गुणों को एक ही दोष ग्रस लेता है।
216: महात्मा को पराए बल पर साहस नहीं करना चाहिए।
217: चरित्र का उल्लंघन कदापि नहीं करना चाहिए।
218: विश्वास की रक्षा प्राण से भी अधिक करनी चाहिए।
219: चुगलखोर श्रोता के पुत्र और पत्नी उसे त्याग देते है।
220: बच्चों की सार्थक बातें ग्रहण करनी चाहिए।
221: साधारण दोष देखकर महान गुणों को त्याज्य नहीं समझना चाहिए।
222: ज्ञानियों में भी दोष सुलभ है।
223: रत्न कभी खंडित नहीं होता। अर्थात विद्वान व्यक्ति में कोई साधारण दोष होने पर उस पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए।
224: मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।
225: शत्रु द्वारा किया गया स्नेहिल व्यवहार भी दोषयुक्त समझना चाहिए।
226: सज्जन की राय का उल्लंघन न करें।
227: गुणी व्यक्ति का आश्रय लेने से निर्गुणी भी गुणी हो जाता है।
228: दूध में मिला जल भी दूध बन जाता है।
229: मृतिका पिंड (मिट्टी का ढेला) भी फूलों की सुगंध देता है। अर्थात सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवशय पड़ता है जैसे जिस मिटटी में फूल खिलते है उस मिट्टी से भी फूलों की सुगंध आने लगती है।
230: मुर्ख व्यक्ति उपकार करने वाले का भी अपकार करता है। इसके विपरीत जो इसके विरुद्ध आचरण करता है, वह विद्वान कहलाता है।
231: मछेरा जल में प्रवेश करके ही कुछ पाता है।
231: राजा अपने बल-विक्रम से धनी होता है।
233: शत्रु भी उत्साही व्यक्ति के वश में हो जाता है।
234: उत्साहहीन व्यक्ति का भाग्य भी अंधकारमय हो जाता है।
235: पाप कर्म करने वाले को क्रोध और भय की चिंता नहीं होती।
236: अविश्वसनीय लोगों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
237: विष प्रत्येक स्तिथि में विष ही रहता है।
238: कार्य करते समय शत्रु का साथ नहीं करना चाहिए।
239: राजा की भलाई के लिए ही नीच का साथ करना चाहिए।
240: संबंधों का आधार उद्देश्य की पूर्ति के लिए होता है।
241: शत्रु का पुत्र यदि मित्र है तो उसकी रक्षा करनी चाहिए।
242: शत्रु के छिद्र (दुर्बलता) पर ही प्रहार करना चाहिए।
243: अपनी कमजोरी का प्रकाशन न करें।
244: एक अंग का दोष भी पुरुष को दुखी करता है।
245: शत्रु छिद्र (कमजोरी) पर ही प्रहार करते है।
246: हाथ में आए शत्रु पर कभी विश्वास न करें।
247: स्वजनों की बुरी आदतों का समाधान करना चाहिए।
248: स्वजनों के अपमान से मनस्वी दुःखी होते है।
249: सदाचार से शत्रु पर विजय प्राप्त की जा सकती है।
250: विकृतिप्रिय लोग नीचता का व्यवहार करते है।
251: नीच व्यक्ति को उपदेश देना ठीक नहीं।
252: नीच लोगों पर विश्वास नहीं करना चाहिए।
253: भली प्रकार से पूजने पर भी दुर्जन पीड़ा पहुंचाता है।
254: कभी भी पुरुषार्थी का अपमान नहीं करना चाहिए।
255: क्षमाशील पुरुष को कभी दुःखी न करें।
256: क्षमा करने योग्य पुरुष को दुःखी न करें।
257: स्वामी द्वारा एकांत में कहे गए गुप्त रहस्यों को मुर्ख व्यक्ति प्रकट कर देते हैं।
258: अनुराग अर्थात प्रेम फल अथवा परिणाम से ज्ञात होता है।
259: ज्ञान ऐश्वर्य का फल है।
260: मुर्ख व्यक्ति दान देने में दुःख का अनुभव करता है।
261: विवेकहीन व्यक्ति महान ऐश्वर्य पाने के बाद भी नष्ट हो जाते है।
262: धैर्यवान व्यक्ति अपने धैर्ये से रोगों को भी जीत लेता है।
263: गुणवान क्षुद्रता को त्याग देता है।
264: कमजोर शरीर में बढ़ने वाले रोग की उपेक्षा न करें।
265: शराबी के हाथ में थमें दूध को भी शराब ही समझा जाता है।
266: यदि न खाने योग्य भोजन से पेट में बदहजमी हो जाए तो ऐसा भोजन कभी नहीं करना चाहिए।
267: आवश्यकतानुसार कम भोजन करना ही स्वास्थ्य प्रदान करता है।
268: खाने योग्य भी अपथ्य होने पर नहीं खाना चाहिए।
269: दुष्ट के साथ नहीं रहना चाहिए।
270: जब कार्यों की अधिकता हो, तब उस कार्य को पहले करें, जिससे अधिक फल प्राप्त होता है।
271: अजीर्ण की स्थिति में भोजन दुःख पहुंचाता है।
272:रोग शत्रु से भी बड़ा है।
273: सामर्थ्य के अनुसार ही दान दें।
274: चालाक और लोभी बेकार में घनिष्ठता को बढ़ाते है।
275: लोभ बुद्धि पर छा जाता है, अर्थात बुद्धि को नष्ट कर देता है।
276: अपने तथा अन्य लोगों के बिगड़े कार्यों का स्वयं निरिक्षण करना चाहिए।
277: मूर्खों में साहस होता ही है। (यहाँ साहस का तात्पर्ये चोरी-चकारी, लूट-पाट, हत्या आदि से है )
278: मूर्खों से विवाद नहीं करना चाहिए।
279: मुर्ख से मूर्खों जैसी ही भाषा बोलें।
280: मुर्ख का कोई मित्र नहीं है।
281: धर्म के समान कोई मित्र नहीं है।
282: धर्म ही लोक को धारण करता है।
283: प्रेत भी धर्म-अधर्म का पालन करते है।
284: दया धरम की जन्मभूमि है।
285: धर्म का आधार ही सत्य और दान है।
286: धर्म के द्वारा ही लोक विजय होती है।
287: मृत्यु भी धरम पर चलने वाले व्यक्ति की रक्षा करती है।
288: जहाँ पाप होता है, वहां धर्म का अपमान होता है।
289: लोक-व्यवहार में कुशल व्यक्ति ही बुद्धिमान है।
290: सज्जन को बुरा आचरण नहीं करना चाहिए।
291: विनाश का उपस्थित होना सहज प्रकर्ति से ही जाना जा सकता है।
292: अधर्म बुद्धि से आत्मविनाश की सुचना मिलती है।
293: चुगलखोर व्यक्ति के सम्मुख कभी गोपनीय रहस्य न खोलें।
294: राजा के सेवकों का कठोर होना अधर्म माना जाता है।
295: दूसरों की रहस्यमयी बातों को नहीं सुनना चाहिए।
296: स्वजनों की सीमा का अतिक्रमण न करें।
297: पराया व्यक्ति यदि हितैषी हो तो वह भाई है।
298: उदासीन होकर शत्रु की उपेक्षा न करें।
299: अल्प व्यसन भी दुःख देने वाला होता है।
300: स्वयं को अमर मानकर धन का संग्रह करें।
301: धनवान व्यक्ति का सारा संसार सम्मान करता है।
302: धनविहीन महान राजा का संसार सम्मान नहीं करता।
303: दरिद्र मनुष्य का जीवन मृत्यु के समान है।
304: धनवान असुंदर व्यक्ति भी सुरुपवान कहलाता है।
305: याचक कंजूस-से-कंजूस धनवान को भी नहीं छोड़ते।
306: उपार्जित धन का त्याग ही उसकी रक्षा है। अर्थात उपार्जित धन को लोक हित के कार्यों में खर्च करके सुरक्षित कर लेना चाहिए।
307: अकुलीन धनिक भी कुलीन से श्रेष्ठ है।
308: नीच व्यक्ति को अपमान का भय नहीं होता।
309: कुशल लोगों को रोजगार का भय नहीं होता।
310: जितेन्द्रिय व्यक्ति को विषय-वासनाओं का भय नहीं सताता।
311: कर्म करने वाले को मृत्यु का भय नहीं सताता।
312: साधू पुरुष किसी के भी धन को अपना ही मानते है।
313: दूसरे के धन अथवा वैभव का लालच नहीं करना चाहिए।
314: मृत व्यक्ति का औषधि से क्या प्रयोजन।
315: दूसरे के धन का लोभ नाश का कारण होता है।
316: दूसरे का धन किंचिद् भी नहीं चुराना चाहिए।
317: दूसरों के धन का अपहरण करने से स्वयं अपने ही धन का नाश हो जाता है।
318: चोर कर्म से बढ़कर कष्टदायक मृत्यु पाश भी नहीं है।
319: जीवन के लिए सत्तू (जौ का भुना हुआ आटा) भी काफी होता है।
320: हर पल अपने प्रभुत्व को बनाए रखना ही कर्त्यव है।
321: नीच की विधाएँ पाप कर्मों का ही आयोजन करती है।
322: निकम्मे अथवा आलसी व्यक्ति को भूख का कष्ट झेलना पड़ता है।
323: भूखा व्यक्ति अखाद्य को भी खा जाता है।
324: इंद्रियों के अत्यधिक प्रयोग से बुढ़ापा आना शुरू हो जाता है।
325: संपन्न और दयालु स्वामी की ही नौकरी करनी चाहिए।
326: लोभी और कंजूस स्वामी से कुछ पाना जुगनू से आग प्राप्त करने के समान है।
327: विशेषज्ञ व्यक्ति को स्वामी का आश्रय ग्रहण करना चाहिए।
328: उचित समय पर सम्भोग (sex) सुख न मिलने से स्त्री बूढी हो जाती है।
329: नीच और उत्तम कुल के बीच में विवाह संबंध नहीं होने चाहिए।
330: न जाने योग्य जगहों पर जाने से आयु, यश और पुण्य क्षीण हो जाते है।
331: अधिक मैथुन (सेक्स) से पुरुष बूढ़ा हो जाता है।
332: अहंकार से बड़ा मनुष्य का कोई शत्रु नहीं।
333: सभा के मध्य शत्रु पर क्रोध न करें।
334: शत्रु की बुरी आदतों को सुनकर कानों को सुख मिलता है।
335: धनहीन की बुद्धि दिखाई नहीं देती।
336: निर्धन व्यक्ति की हितकारी बातों को भी कोई नहीं सुनता।
337: निर्धन व्यक्ति की पत्नी भी उसकी बात नहीं मानती।
338: पुष्पहीन होने पर सदा साथ रहने वाला भौरा वृक्ष को त्याग देता है।
339: विद्या से विद्वान की ख्याति होती है।
340: यश शरीर को नष्ट नहीं करता।
341: जो दूसरों की भलाई के लिए समर्पित है, वही सच्चा पुरुष है।
342: शास्त्रों के ज्ञान से इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है।
343: गलत कार्यों में लगने वाले व्यक्ति को शास्त्रज्ञान ही रोक पाते है।
344: नीच व्यक्ति की शिक्षा की अवहेलना करनी चाहिए।
345: मलेच्छ अर्थात नीच की भाषा कभी शिक्षा नहीं देती।
346: मलेच्छ अर्थात नीच व्यक्ति की भी यदि कोई अच्छी बात हो अपना लेना चाहिए।
347: गुणों से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए।
348: विष में यदि अमृत हो तो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।
349: विशेष स्थिति में ही पुरुष सम्मान पाता है।
350: सदैव आर्यों (श्रेष्ठ जन) के समान ही आचरण करना चाहिए।
Quote 351: मर्यादा का कभी उल्लंघन न करें।
352: विद्वान और प्रबुद्ध व्यक्ति समाज के रत्न है।
353: स्त्री रत्न से बढ़कर कोई दूसरा रत्न नहीं है।
354: रत्नों की प्राप्ति बहुत कठिन है। अर्थात श्रेष्ठ नर और नारियों की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है।
355: शास्त्र का ज्ञान आलसी को नहीं हो सकता।
356: स्त्री के प्रति आसक्त रहने वाले पुरुष को न स्वर्ग मिलता है, न धर्म-कर्म।
357: स्त्री भी नपुंसक व्यक्ति का अपमान कर देती है।
358: फूलों की इच्छा रखने वाला सूखे पेड़ को नहीं सींचता।
359: बिना प्रयत्न किए धन प्राप्ति की इच्छा करना बालू में से तेल निकालने के समान है।
360: महान व्यक्तियों का उपहास नहीं करना चाहिए।
361: कार्य के लक्षण ही सफलता-असफलता के संकेत दे देते है।
362: नक्षत्रों द्वारा भी किसी कार्य के होने, न होने का पता चल जाता है।
363: अपने कार्य की शीघ्र सिद्धि चाहने वाला व्यक्ति नक्षत्रों की परीक्षा नहीं करता।
364: परिचय हो जाने के बाद दोष नहीं छिपाते।
365: स्वयं अशुद्ध व्यक्ति दूसरे से भी अशुद्धता की शंका करता है।
366: अपराध के अनुरूप ही दंड दें।
367: कथन के अनुसार ही उत्तर दें।
368: वैभव के अनुरूप ही आभूषण और वस्त्र धारण करें।
369: अपने कुल अर्थात वंश के अनुसार ही व्यवहार करें।
370: कार्य के अनुरूप प्रयत्न करें।
371: पात्र के अनुरूप दान दें।
372: उम्र के अनुरूप ही वेश धारण करें।
373: सेवक को स्वामी के अनुकूल कार्य करने चाहिए।
374: पति के वश में रहने वाली पत्नी ही व्यवहार के अनुकूल होती है।
375: शिष्य को गुरु के वश में होकर कार्य करना चाहिए।
376: पुत्र को पिता के अनुकूल आचरण करना चाहिए।
377: अत्यधिक आदर-सत्कार से शंका उत्पन्न हो जाती है।
378: स्वामी के क्रोधित होने पर स्वामी के अनुरूप ही काम करें।
379: माता द्वारा प्रताड़ित बालक माता के पास जाकर ही रोता है।
380: स्नेह करने वालों का रोष अल्प समय के लिए होता है।
381: मुर्ख व्यक्ति को अपने दोष दिखाई नहीं देते, उसे दूसरे के दोष ही दिखाई देते हैं।
382: स्वार्थ पूर्ति हेतु दी जाने वाली भेंट ही उनकी सेवा है।
383: बहुत दिनों से परिचित व्यक्ति की अत्यधिक सेवा शंका उत्पन्न करती है।
384: अति आसक्ति दोष उत्पन्न करती है।
385: शांत व्यक्ति सबको अपना बना लेता है।
386: बुरे व्यक्ति पर क्रोध करने से पूर्व अपने आप पर ही क्रोध करना चाहिए।
387: बुद्धिमान व्यक्ति को मुर्ख, मित्र, गुरु और अपने प्रियजनों से विवाद नहीं करना चाहिए।
388: ऐश्वर्य पैशाचिकता से अलग नहीं होता।
389: स्त्री में गंभीरता न होकर चंचलता होती है।
390: धनिक को शुभ कर्म करने में अधिक श्रम नहीं करना पड़ता।
391: वाहनों पर यात्रा करने वाले पैदल चलने का कष्ट नहीं करते।
392: जो व्यक्ति जिस कार्य में कुशल हो, उसे उसी कार्य में लगाना चाहिए।
393: स्त्री का निरिक्षण करने में आलस्य न करें।
394: स्त्री पर जरा भी विश्वास न करें।
395: स्त्री बिना लोहे की बड़ी है।
396: सौंदर्य अलंकारों अर्थात आभूषणों से छिप जाता है।
397: गुरुजनों की माता का स्थान सर्वोच्च होता है।
398: प्रत्येक अवस्था में सर्वप्रथम माता का भरण-पोषण करना चाहिए।
399: स्त्री का आभूषण लज्जा है।
400: ब्राह्मणों का आभूषण वेद है।
401: सभी व्यक्तियों का आभूषण धर्म है।
402: विनय से युक्त विद्या सभी आभूषणों की आभूषण है।
403: शांतिपूर्ण देश में ही रहें।
404: जहां सज्जन रहते हों, वहीं बसें।
405: राजाज्ञा से सदैव डरते रहे।
406: राजा से बड़ा कोई देवता नहीं।
407: राज अग्नि दूर तक जला देती है।
408: राजा के पास खाली हाथ कभी नहीं जाना चाहिए।
409: गुरु और देवता के पास भी खाली नहीं जाना चाहिए।
410: राजपरिवार से द्वेष अथवा भेदभाव नहीं रखना चाहिए।
411: राजकुल में सदैव आते-जाते रहना चाहिए।
412: राजपुरुषों से संबंध बनाए रखें।
413: राजदासी से कभी शारीरिक संबंध नहीं बनाने चाहिए।
414: राजधन की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखना चाहिए।
415: पुत्र के गुणवान होने से परिवार स्वर्ग बन जाता है।
416: पुत्र को सभी विद्याओं में क्रियाशील बनाना चाहिए।
417: जनपद के लिए ग्राम का त्याग कर देना चाहिए।
418: ग्राम के लिए कुटुम्ब (परिवार) को त्याग देना चाहिए।
419: पुत्र प्राप्ति सर्वश्रेष्ठ लाभ है।
420: प्रायः पुत्र पिता का ही अनुगमन करता है।
421: गुणी पुत्र माता-पिता की दुर्गति नहीं होने देता।
422: पुत्र से ही कुल को यश मिलता है।
423: जिससे कुल का गौरव बढे वही पुरुष है।
424: पुत्र के बिना स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती।
425: संतान को जन्म देने वाली स्त्री पत्नी कहलाती है।
426: एक ही गुरुकुल में पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं का निकट संपर्क ब्रह्मचर्य को नष्ट कर सकता है।
427: पुत्र प्राप्ति के लिए ही स्त्री का वरण किया जाता है।
428: पराए खेत में बीज न डाले। अर्थात पराई स्त्री से सम्भोग (सेक्स) न करें।
429: अपनी दासी को ग्रहण करना स्वयं को दास बना लेना है।
430: विनाश काल आने पर दवा की बात कोई नहीं सुनता।
431: देहधारी को सुख-दुःख की कोई कमी नहीं रहती।
432: गाय के पीछे चलते बछड़े के समान सुख-दुःख भी आदमी के साथ जीवन भर चलते है।
433: सज्जन तिल बराबर उपकार को भी पर्वत के समान बड़ा मानकर चलता है।
434: दुष्ट व्यक्ति पर उपकार नहीं करना चाहिए।
435: उपकार का बदला चुकाने के भय से दुष्ट व्यक्ति शत्रु बन जाता है।
436: सज्जन थोड़े-से उपकार के बदले बड़ा उपकार करने की इच्छा से सोता भी नहीं।
437: देवता का कभी अपमान न करें।
438: आंखों के समान कोई ज्योति नहीं।
439: आंखें ही देहधारियों की नेता है।
440: आँखों के बिना शरीर क्या है?
441: जल में मूत्र त्याग न करें।
442: नग्न होकर जल में प्रवेश न करें।
443: जैसा शरीर होता है वैसा ही ज्ञान होता है।
444: जैसी बुद्धि होती है , वैसा ही वैभव होता है।
445: स्त्री के बंधन से मोक्ष पाना अति दुर्लभ है।
445: सभी अशुभों का क्षेत्र स्त्री है।
446: स्त्रियों का मन क्षणिक रूप से स्थिर होता है।
447: तपस्वियों को सदैव पूजा करने योग्य मानना चाहिए।